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योग एवं भारतीय संस्कृति - Khabrana.com योग एवं भारतीय संस्कृति
December 24, 2024

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योग एवं भारतीय संस्कृति

योग व भारतीय संस्कृति ( समशेर सिंह)भारतीय संस्कृति अपने चिर पुरातन काल से ही पूरे विश्व को अलग-अलग माध्यमों से लाभान्वित करती रही। ‘योग’ भी भारतीय संस्कृति द्वारा समूचे विश्व को दिया गया एक अमरफल की भांति है। योग का महत्व सतयुग, द्वापरयुग,त्रेतायुग,वेद व उपनिषद काल से लेकर वर्तमान समय तक पूरे विश्व में विद्यमान दिखाई देता है।समुंद्र मंथन के समय देवताओं एवं दानवों के मध्य संघर्ष के समय जब ‘अमृत कलश’ से जहर निकला तो उसे ‘भगवान शिव’ ने अपने कंठ में धारण किया।भगवान शिव द्वारा जहर को अपने कंठ में ‘योग साधना’ के कारण ही रख पाये इसलिए वह ‘आदियोगी’ कहलाते हैं।

योग भारतीय संस्कृति एवं भारतीय पुरातन विज्ञान की ऐसी देन है जो मनुष्य को उसके मन, इच्छा,दिमाग,समझ एवं संपूर्ण शरीर पर नियंत्रण करने योग्य बनाता है। ‘शिव जी’ की यह कथा इसका प्रमाण है।

योग शब्द का अर्थ जोड या समाधि। जिसके लिए महर्षि पतंजलि (200 ई.सा. पूर्व ) अपने योगदर्शन में लिखते हैं “योगाच्श्रित्रवत निरोध:” अर्थात स्व की चित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है। भारतीय संस्कृति के अनुसार योग व्यक्ति को आध्यात्मिक रूप से मोक्ष ( मुक्ति मार्ग ) कि ओर ले जाने का सबसे बड़ा व शक्तिशाली माध्यम है।

योग पृथ्वी पर उतना ही पुराना है जितनी मानव सभ्यता लगभग 2500 ई.सा.पूर्व हड़प्पा सभ्यता में किसी योगी की प्रतिमा, चारों वेदों ( ऋग्वेद, सामवेद, अर्थवेद और यजुर्वेद ),रामायण एवं महाभारत से लेकर हर युग में इसके प्रमाण भली-भांति प्राप्त हुए हैं। हिंदू धर्म में सर्वप्रथम योग शब्द कठोपनिषद में प्रयोग हुआ जहां इसे ज्ञानेंद्रियों के नियंत्रण और मानसिक गतिविधियों के निवारण हेतु प्रयुक्त विज्ञान कहा गया है । इस उपनिषद में कहा गया है कि तं योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।

अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।। (कठोपनिषद्- 6.11)

योग करने वाला व्यक्ति अप्रमत्त अर्थात् प्रमादरहित हो जाता है। योग से शुभ संस्कारों और विवेक का प्रभव (प्रादुर्भाव) होता है और अशुभ संस्कारों व अविवेक का अप्यय (नाश) होता है।

भारतीय ऋषि-मुनियों,दार्शनिकों एवं महापुरुषों ने अपने ज्ञान के माध्यम से योग दर्शन को सभी तक विस्तारित किया। पतंजलि ने योग दर्शन में ‘आष्टांग योग’ – यम ( नैतिक मूल्य), नियम ( शुद्धता का व्यक्तिगत रूप से पालन ), आसन ( शारीरिक व्यायाम ), प्रत्याहार ( संतुलित आहार ), धारणा ( एकाग्रता ),ध्यान ( चिंतन ),समाधि ( वियुक्ति ) को बताया जो वास्तविकता में मनुष्य को प्रकृतिश्च होकर जीवन जीने का मार्ग बताती है।

राजा भोज ने भी महर्षि पतञ्जलि (पतंजलि) की सराहना की है। –
योगेन चित्तस्य पदेन वाचां । मलं शरीरस्य च वैद्यकेन ॥
योऽपाकरोत्तमं प्रवरं मुनीनां । पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि ॥
मन की चित्त वृत्तियों को को योग से, वाणी को व्याकरण से और शरीर की अशुद्धियों को आयुर्वेद द्वारा शुद्ध करने वाले मुनियों में सर्वश्रेष्ठ महर्षि पतञ्जलि (पतंजलि) को में दोनों हाथ जोड़कर नमन करता हूँ।